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रविवार, 2 दिसंबर 2018

बडा आदमी



बचपन से एक ही सपना था, बडा होकर विदेश जाऊंगा, खूब पैसा कमा कर मै भी बडा आदमी बनूंगा।बचपन से बडा होने तक बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ बदला मगर बडा आदमी बनने की परिभाषा नही बदली। और इसी ललक ने मुझे विदेश में अच्छी नौकरी अच्छा पैसा दिलाया। आज जब यदा कदा अपने देश वापस आता हूँ तो लोगो की आंखो में जो अपनी छवि दिखाई देती है, वो अहसास दिला जाती है कि मै अब थोडा थोडा बडा आदमी बन रहा हूँ। इस बार वापसी के समय माँ बाबू जी की आंखों में मै साफ साफ पढ रहा था कि बेटा बहुत बन लिये बडे आदमी कुछ दिन इन बूढी हड्डियों के लिये बडे बेटे बन जाओ, मगर वापस आते आते और बडे बनने की धुन के सामने बहुत जल्दी वो अनकहे शब्द धुंधले पड गये। धीरे धीरे जीवन फिर से रफ्तार पकड चुका था, दिसम्बर का फर्स्ट वीक चल रहा था, बहुत सारा काम निपटाना था क्योंकि फिर लम्बी छुट्टियां थी, आज सुबह से काम में व्यस्त था, थोडा सर मे भारीपन सा महसूस कर रहा था सो डेविड को काम आगे कन्टून्यू करने को बोलकर मै कैंटीन चला गया। आज मधुर छुट्टी पर था सो अकेले ही चाय का कप ले एक कार्नर सीट पर बैठ गया। तभी कुछ दूर पर बैठे लोगो की बातें जो अस्पष्ट थी सुनाई दी, वो कह रहे थे-
अच्छा ही किया सरकार ने, जो योग्यता के आधार पर दूसरे लोगो को अपने देश में नही रुकने देगें, अब तो बहुत से लोगों को जाना ही होगा, वैसे भी ये लोग सिर्फ पैसा कमाने यहाँ आते है, दूसरे ने बोला- यार ये बताओ इंडिया में योग्य लोगों को पैसा कमाने के साधनों की कमी है क्या? तभी एक अन्य बोला- मुझे तो लगता है इन लोगो को अपने यहाँ इज्जत तभी मिलती है जब ये हमारे देश में काम करते हैं। और यार इसमें अपना और अपने देश का ही तो फायदा है, यहाँ टिके रहने के लिये ये और मेहनत करेंगे, और हमारे देश की और तरक्की होगी। तभी पहला वाला बोला- ह्म्म वो तो है मगर सोचो कि जो लोग यहाँ से निकाले जायेंगे उन्हे न तो उनके देश में पैसा मिलेगा न इज्जत, जिसके लिये बेचारे सब छोड कर आते है और बस अपनी तसल्ली के लिये बोलते रहते है आई लव माई इंडिया, हाउ पुअर दीस पीपुल, और कह कर सब हंसने लगे। मै चाह कर भी उन्हे कोई जवाब नही दे पा रहा था, क्योकि मै खुद कुछ समय से इसी डर में जी रहा था कि क्या इस देश के हिसाब से मै योग्य व्यक्ति हूं या या किसी भी दिन अयोग्य साबित कर निकाल दिया जाऊंगा।
मगर चाय खत्म करते करते मैं यह समझ पा रहा था कि बडा आदमी बनने की जो परिभाषा मैने समझी थी वो कितनी गलत थी, चाय का कप टेबल पर छोडते हुये मैंने निश्चय कर लिया था कि अब मुझे माता पिता का बडा बेटा और अपने देश के लिये बडा आदमी बनना है।



मंगलवार, 27 नवंबर 2018

वो फरिश्ते कम ही होते है.........


बहुत दूर तलक साथ दे,
वो रिश्ते कम ही होते हैं
औरों के लिये भी जियें
वो अपने कम ही होते हैं

दिखती तो हैं कई चेहरों में
कुछ अपनेपन की फिकर
बिन कहे दर्द दिल के सिये
वो अपने कम ही होते है

धूम करने को महफिल में
बहुत से है तराने, लेकिन
बुझे दिल की रौशनाई बने
वो नगमे कम ही होते हैं

जी कर भी तमाम उम्र
तलाश अधूरी सी, अबतक
मुकम्मल जिन्दगी कर दे
वो लमहे कम ही होते हैं

कामयाबी पे मिलते है गले
बेगाने भी अपनो की तरह
सख्त राहों में हमकदम बने
वो फरिश्ते कम ही होते है

रविवार, 18 नवंबर 2018

परची



सलिल और अनीता की शादी को करीब आठ साल हो चुके थे किन्तु आंगन आज तक सूना था, कोई ऐसा डॉक्टर नही बचा था जिन्हे दिखाया न गया हो, कोई ऐसा मन्दिर नही था जहाँ मन्नत न मांगी गयी हो। जब सभी आशाओं ने दम तोड दिया तब दम्पति ने एक बच्चा गोद देने का निश्चय किया। आज इसी उद्देश्य से दोनो "अपना घर" अनाथाश्रम में आये थे। इस अनाथाश्रम में करीब पचास साठ बच्चे थे, अनाथाश्रम की संचालिका इरा ने उन्हे बच्चों से मिलवाया, दोनो कुछ समय बच्चों के साथ समय बिता यह कह कर वापस आ गये कि आपको दो चार दिनों में बताते है कि हम किस बच्चे को गोद लेंगें।
करीब एक हफ्ते बाद वह बच्चा लेने के लिये वापस अपना घर आये। उन्होने एक बच्चा जो करीब चार साल का था उसको लेने का निश्चय किया था। उन्होने संचालिका इरा से कहा- हम लोग करीब एक हफ्ते पहले आये थे, बच्चे देखकर गये थे, हम दोनो ने काफी सोचा और फिर रोहित को ले जाने का निश्चय किया है, आप हमे बच्चा लेने का प्रासेस बता दीजिये।  
इरा ने कहा- माफ कीजिये हम आपको रोहित क्या अपने किसी भी बच्चे को नही दे सकते। सलिल और अनीता ये सुनकर हैरान थे, अनीता ने कहा- नही दे सकते, हम आपका मतलब नही समझे, पिछले हफ्ते तो आपने कुछ नही कहा था, आखिर क्यों नही दे सकती।
इरा ने कहा- मै उन लोगों को बच्चा नही देती जो बच्चे को देखकर या सोच समझकर ले जाते है, मेरे बच्चे कोई वस्तु नही। मै ऐसे किसी भी माता पिता को अपना बच्चा नही सौंपती। शायद आपने हमारे बारे में सुना नही है, यहाँ जब कोई माता पिता बच्चा लेने आते है तो हम सारे बच्चों के नाम की परचियों में से एक परची चुनने को उन्हे कहते हैं, हमारे यहाँ बच्चों का चुनाव करने का प्रावधान नही है, अनीता जी, ममता का न रूप होता है न रंग, न उम्र होती है न धर्म। फिर थोडा रुक कर इरा जी ने अनीता को प्रश्नात्मक निगाह से देखते हुये कहा - ममता और जरूरत के अन्तर को तो आप भी समझती होंगी। मेरे बच्चे किसी की जरूरत को पूरा करने के लिये नही, हाँ ममता के आकांक्षी जरूर हैं, और हम अपने बच्चों को सही हाथों में सौपने के प्रति बेहद सावधान रहते हैं। मेरे अनाथाश्रम का नाम यूं ही अपना घर नही, वास्तव में ये मेरे बच्चों का अपना घर है।
इरा जी को सुनकर  सलिल और अनीता को अपनी भूल का अहसास हो चुका था। इरा जी से माफी मांगते हुये अनीता ने विनम्र स्वर में कहा- हम अपनी सोच पर शर्मिन्दा है, आपने आज जो सिखाया है, वो हमे आजीवन याद रहेगा, मै बस आप्आसे विनती कराती हूँ अपनी बगिया का एक फूल हमें सौंप दीजिये, हम आपको विश्वास दिलाते हैं आपके फूल को आपसा ही प्यार देंगे। प्लीज हमे माफ कर दीजिये, कहकर अनीता ने इरा जी के सामने अपना आंचल फैला दिया, इरा जी भी एक अनुभवी सेवानिवॄत्त प्राध्यापिका थी,  व्यक्ति को परखने में उनसे चूक होने का प्रश्न ही नही था। उन्होने अनीता को गले  लगा लिया और मुस्कुराते हुये बोली- आओ चुन लो एक परची और पूरा करो बच्चा गोद लेने का प्रॉसेस।

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

इक्तेफाक- The coincidence


कैसे समझ लूं, मिलना तुमसे
महज इक्तेफाक था
इतने बडे जहाँ में
एक छत के नीचे
तेरा मेरा साथ होना
महज इक्तेफाक था
हजारों की भीड में
टकरा जाना
तेरी नजरों का मेरी नजरों से
महज इक्तेफाक था
हसी खुशी के मंजर में
अचानक से दहशतगर्दों का
विस्फोट करना
और मेरा तेरी बाहों में गिर जाना
महज इक्तेफाक था
किसी अन्जान की परवाह में
कई रातों जगना
सलामती की दुआ मांगना
मेरे जख्मों का दर्द
तेरी सीने में उतर आना
महज इक्तेफाक था
चंद दिनों पहले के अनजबियों का
अपनो से बढकर हो जाना
महज इक्तेफाक था
तुमसे मिलने से पहले 
मेरे दिल का सूना और 
तेरे दिल का वीरां होना
महज इक्तेफाक था
नही, बिल्कुल नही मान सकता मेरा दिल
कि इतना कुछ
महज इक्तेफाक था
हमे मिलना ही था,
इसलिये हम मिले थे
मगर यूं मिलना
हाँ वो , महज इक्तेफाक था

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

मुकद्दमें जब चलाये जाते हैं



बेदिल दिल देखे उनके
जो दिलवाले कहलाते हैं
चराग बाटंने वाले अक्सर
रातों में ख्वाब जलाते हैं

कहाँ दिखेगें दाग भला
सफेदपोशों के दामन में
गुनाहो का कारोबार तो ये
खाली पेटों से करवाते हैं

कैसे ढूंढेगा कोई भला
अंधियारे में उजियारे को
सच को बदनाम झूठ के
जब नकाब पहनाये जाते हैं

कहने से भला कहाँ होगा
इश्क आजाद मजहब से
इंसा तो क्या खुदा पर भी
जब मुकद्दमें चलाये जाते हैं

किस हद तक और गिरेगा
हैवान अपनी हैवानियत से
इंसा छोडो, मुर्दो पर भी
जब इल्जाम लगाये जाते है

बुधवार, 12 सितंबर 2018

आस पर विश्वास



दुर्वासा ऋषि  दुर्योधन की कपटता से पूर्णतः अनभिज्ञ थे, दुर्योधन ने उनसे अनुरोध किया कि जैसे आपने हमे अपनी सेवा का मौका दिया उसी तरह वह उसके पांड़्व भाइयों को भी अपनी सेवा का अवसर देने की कृपा करें। दुर्वासा जी दुर्योधन के छल को न समझ और अपने अन्य ऋषियों के साथ पांड़्वो के पास पहुंचने का निश्चय किया। संयोगवश जब वह पांड़्वो की कुटिया पहुँचते हैं, रानी द्रौपदी भोजन समाप्त कर अक्षयपात्र भी धुल चुका होती हैं। राजा युधिष्ठिर चिंतित होते है कि अब अतिथियों को भोजन कैसे कराया जायगा, किन्तु रानी द्रौपदी सरलता से कह देतीं है, आप ऋषियों से स्नान करके आने को कहिये, मै भोजन का प्रबन्ध करती हूँ। युधिष्ठिर विस्मय में पड जाते हैं, उन्हे समझ नही आता कि द्रौपदी आखिर किस प्रकार भोजन का प्रबन्ध करोगी। वो अधीर हो द्रौपदी से कहते हैं- प्रिये- तुम अक्षयपात्र तो साफ कर चुकी हो, और एक बार साफ करने के पश्चात एक ही दिन में दुबारा इसमें भोजन पकाना सम्भव नही, फिर किस भांति तुम अतिथियों के भोजन का प्रबन्ध करोगी, मैं ऋषि श्रेष्ठ से क्षमा याचना कर लेता हूँ। तब दौपदी ने कहा- आर्यपुत्र – मुझे अपनी आस पर विश्वास है। मेरे कृष्ण मेरी आस हैं, और उनके रहते चिंतित होने की तनिक भी आवश्यकता नही। मेरे कृष्ण ने तो अब तक कुछ विचार कर ही लिया होगा। अतएव आप निश्चिन्त हो और अतिथियों के शेष स्वागत की तैयारी कीजिये।

जीवन में कई बार ऐसा होता है जब स्वयं का विश्वास भी पर्याप्त नही पड़्ता हमे कई काम असम्भव जान पड़्ते हैं, तब हमे जिस पर भी भरोसा होता है उसके विश्वास के बल पर हम वह असम्भव भी कर जाते हैं। 

बुधवार, 22 अगस्त 2018

कुछ यूं ही



बडी खामोशी से हमने चुन ली खामोशी
बेअदबी ही अदब जबसे जमाने में हुआ

किससे करे शिकायत किसकी करे शिकायत
दामन में दागों का फैशन जरा जोरों पे है

खुदा का शुक्र जो बक्शा भूल जाने का हुनर
कुछ तो बच गया जिगर लहू लुहान होने से

तबाहियों के मंजर पे जाता दिखता है जमाना
बर्बादियां जब तरक्की की नुमांइन्दगी करती है

बडे शौक से दफन किये जाइये तहजीबो उसूल
नूर परख पाना हर किसी के बस की बात नही

जिधर भी देखा उधर मुखौटे ही मिले
एक मुद्दत से हमने चेहरा नही देखा

तालियों की गडगडाहटें बता देती हैं
खुशी का मंजर है या खुशामद का हुजूम

कुदरत गर्म औ लहू का सर्द मौसम हुआ 
कुछ बारिशें है जरूरी इन रेगिस्तानों में

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

जरूरत का फूल



नही दे सकती स्नेह का जल
सीचंने को नवजात जीवन
कि सुनती हूँ उसके रोने में
चीखें तीन जिन्दा, चार मॄत
और दो अंकुरित मादा लाशों की
जानती हूँ अच्छी तरह
निर्दोष है पूरी तरह
ये नन्हा सा जीव
बाहें पसारे आतुर है
मेरे स्पर्श को
जो इसका अधिकार भी है 
और मेरा दायित्व भी
मगर उसके मासूम से चेहरे में
आने लगता है मुझे नजर
मॄत्यु का ताडंव
याद आती है वो यातना
जब मन चीख चीख कर
मना रहा होता था मातम
और नोचा जा रहा था ये शरीर
जहाँ थी मै मात्र एक मशीन 
जिसमे डाला जा रहा था बीज
जबरदस्ती अहंकार के साथ
कि कैसे नही उगेगा इस धरा पर
पुत्र नाम का पौध
यही तो है वो 
जिसके सहारे बढेगी वंश की बेल
जिसे पल्लवित करने के लिये दी गयी बलि
मेरी जन्मी अजन्मी बेटियों की
चारो तरफ से आने वाली बधाइयों में
सुनती हूँ अपनी बेटियों की बेबसी
जिन्हे नही दे सकी अपना हाडं मास
बस धीरे धीरे हर बार थोडा थोडा
मरती रही मेरी ममता
मरता गया मेरा ममत्व
और आज लेबर रूम से बाहर
एक नवजात शिशु के साथ निकली
एक ऐसी जिन्दा औरत
जिसके अन्दर दमतोड़ चुकी थी मां
इस अबोध की आवाज में सुन रही हूँ
अट्टहास एक आदमी का
जो कह रहा है
देखा मै आ गया
जान लो, तुम हो सिर्फ एक औरत
क्या हुआ जो है
जन्म देने का अधिकार तुम्हारे पास
दुनिया में तो वही आयगा जिसे मैं चाहूंगा
रुई के इस फाहे को भूख से बिलखता देख भी
नही फूटता प्रेम का कोई अंकुर
सूख गयी है छाती रेत की तरह
और चट्टान की तरह निष्प्राण हो गया है सीना
फिर भी शायद इस शुष्क तन में 
कहीं बची रह गयी है स्त्री 
जो देगी ही जीवन
इस जरूरत के फूल को

शनिवार, 7 जुलाई 2018

अब न मानूंगी भगवान तुझे



बस भी करो अब देवी कहना
पहले समझो तो इंसान मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर
अब न मानूंगी भगवान तुझे

कदम कदम पर छलते चलते
और पतिदेवता कहलाते हो
कभी जोर से कभी बहलाकर
अपने ही मन की करवाते हो
बहुत सुना है, बहुत सहा है
अब घुटन से् है इंकार मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर
अब न मानूंगी भगवान तुझे

पिता पुत्र सा पावन रिश्ता
तेरे कुकर्मो से कंलकित है
परायी क्या घर की बेटी भी
तेरी कुदॄष्टि से आतंकित है
ज्यादियां तेरी माथे धरी सब
अब मनमानी से इंकार मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर
अब न मानूंगी भगवान तुझे

विवाह जैसे पावन संस्कार
सोने चांदी में है, तुमने तोले
अग्नि समक्ष सप्त फेरो में
क्या सभी वचन, है झूठे बोले
सहचरी कहो तो साथ चलूंगी
अनुचरी बनने से इंकार मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर
अब न मानूंगी भगवान तुझे

तज कर अपनी नींव तुम्हारे
घर को अपना संसार मानती
तेरे व्रत पूजन अर्चन को ही
धर्म समझ हर रीत निभाती
कर अपमानित, मान न चाहो
अब मिटने से है इंकार मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर
अब न मानूंगी भगवान तुझे


बस भी करो अब देवी कहना
पहले समझो तो इंसान मुझे
दिखलाओ जरा साथी बनकर

अब न मानूंगी भगवान तुझे

बुधवार, 4 जुलाई 2018

सोशल मीडिया में हमारी भूमिका



आज के समय में ऐसा कोई भी वर्ग नही जो सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ न हो, 6-7 साल के बच्चे से लेकर 80-85 वर्ष का वृद्ध भी आपको यहां मिल जायगा। ऐसा कोई भी विषय नही जिसकी चर्चा यहां न होती हो। ऐसे समय में हमारी भूमिका भी अहम हो जाती है, हमारी एक लापरपाही, हमारी एक छोटी सी बात सैकेंड्स मे लाखों करोंड़ो की बात बन जाती है।
आम तौर पर जब हम घर में, या आपसे में बात करते हैं तो हमे यह पता होता है हम किसके मध्य अपनी बात रख रहे हैं, हम यह समझते है कि बच्चों के सामने या बड़ो के सामने किस बात को कहना चाहिये या किस बात को नही कहना चाहिये, क्योकि हर बात को सुनने और समझने की एक उम्र होती है, अपरिपक्व मस्तिष्क या अवयस्क के सामने हम हर बात नही करते। मगर सोशल मीडिया में ऐसा नही है, यहां हर बात खुले पन्नो पर है, सबके सामने हैं।
सोशल मीडिया पर एक सिसट्म जो सबसे ज्यादा काम करता है वह है रिकमेंडर सिसट्म। एक ही पल में बिना कुछ सोचे समझे हम यह मान लेते है कि फलां ने यह बात कही है तो सच ही होगी। हम बस उसका साथ देने में जुट जाते हैं, जाने कितनी बार ऐसा होता है कि पूरी पोस्ट पढ़े बिना ही उसको लाइक और शेयर कर दिया जाता है, बिना उसके दूरगामी परिणाम सोचे।
आज सबसे पहले अगर देश के किसी भी कोने में कोई संवेदनशील घटना घटित होती है तो प्रशासन सबसे पहले उस क्षेत्र का इंटर्नेट बंद करता है क्योकि वह जानता है कि धरातल पर तो वह परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकता है मगर यह आभासी दुनिया नियंत्रण से परे है। चंद मिनटों में देश के किसी छोटे से इलाके में घटी मामूली सी लगने वाली घटना ना जाने कौन कौन से रूप धारण करके देश भर में और न जाने कितनी बडी घटनाओं को अंजाम दे।
तकनीक चाहे कोई भी हो, उसके लापरपाह प्रयोग के दूरगामी परिणाम सदैव हानिकारक ही होते हैं।
सभी से तो हम अपेक्षा नही कर सकते किंतु समझदार और जिम्मेदार व्यक्तियों से मेरी अपील है कि सोशल मीडिया हमारे समाज के लिये वरदान भी हो सकता है और विष भी, अत एव इस पर अपनी भूमिका निभाने से पहले सोचे समझे फिर अपनी प्रतिक्रिया दें।
कुछ छोटी छोटी बाते है जिनका अगर ध्यान  हम दें, तो सोशल मीडिया पर गंदगी फैलाने वालों को काफी हद तक रोका जा सकता है।
झूठी बातें झूठी खबरें फैलाने वालों का अच्छा खासा व्यापार चलता है, तस्वीरे इस तरह से इडिट की जाती है, कि सच प्रतीत होती हैं , आपको एक उदाहरण देती हूं

क्या लगा आपको यह चित्र देख कर, यही न कि चित्र में लिखा गया वाक्य विदेकानंद जी ने कहा है। यह हो अच्छी बात है कि यहां एक सकारात्म्क विचार लिखा गया, मगर सोचनीय यह है कि इस चित्र में कितनी सत्यता है, क्या सच में यह विवेकानंद जी ने कहा था।
हममें से जाने कितनों ने इसे सिर्फ इस लिये लाइक या शेयर कर दिया कि यह बात विवेकानंद जी ने कही है, क्या किसी ने यह सोचने की आवश्यकता समझी कि क्या विवेकान्न्द जी की यह भाषा हो सकती है, किसे पुस्तक या किस लेख या किस भाषण में उन्होने यह कहा  चित्र में इसका उल्लेख क्यो नही किया गया?
मेरी समझ से यदि यह बात या इस तरह की किसी बात को यदि विवेकानंद जी कहते भी तो भी वह औकात शब्द का प्रयोग न करते हुये साहस या हौसले शब्द का प्रयोग करते जो इस वाक्य की कटुता को खत्म करता। विवेकानंद जी जैसे मृदुभाषी की यह भाषा हो ही नही सकती, निश्चित रुप से ऐसे विशलेषण होने चाहिये, हमे सत्य जानना और समझना चाहिये। 
इस तरह की मिलावटें न केवल एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व की छवि को धूमिल करती है बल्कि उनके नाम पर अपनी कुंठाओं और नकारात्मकता को समाज में फैलाने का काम करती हैं।
मान लीजिये अगर कुच हद तक सकारात्मक इस बात की जगह कोई ऐसी बात होती जो किसी संप्रदाय या वर्ग विशेष के विपरीत होती। सोचिये जरा क्या होता तब उसका असर?
एक और उदाहरणः एक व्यक्ति किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के चित्र के साथ एक सकारात्मक विचार सोशल मीडिया पर शेयर करता है, कई सप्ताह तक ऐसा करते रहने से लोग उस प्रतिष्ठित व्यक्ति के बारे में अपना विचार बना लेते हैं उसके विचारों का अनुसरण करने लगते हैं, यह व्यक्ति किसी वर्ग विशेष से द्वेश रखता है, अब एक दिन यह व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विचारधारा को फलां प्रतिष्ठित व्यक्ति के चित्र के साथ पोस्ट कर देता है। क्या होगा इसका परिणाम?
कौन भला यह सोचेगा कि जो पोस्ट में लिखा गया है यह व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार है या प्रतिष्ठित व्यक्ति का विचार है, असली खेल अब शुरु होता है, अब कुछ लोग प्रतिष्ठित व्यक्ति के सपोर्ट में आयेंगे और कुछ अगेंस्ट में लिखेंगें, जब लिखेंगे तब भाषा की गरिमा भूल कर लिखेंगें, थोडी देर बात बहस के मुद्दे प्राथमिक विचार से बहुत दूर चले जायेंगें, और सिर्फ और सिर्फ जहर ही उगलना शुरु हो जायगा।
जब किसी बात के साथ हम किसी व्यक्ति को जोडते है तो यह उस व्यक्ति की सोच और विचारधारा बन जाती है , और अगर यह व्यक्ति कोई प्रतिष्ठित, सम्मानित, विशेष व्यक्ति हो तब यह इस बात का असर एक दो लोगो पर नही समाज पर पडता है। और पोषित होने लगती है नफरत, दूषित होने लगती है मानसिकता, बढने लगती है समाज में लोगो के बीच की दूरियां।
क्यूं नही हम पढे लिखे, समझदार सभ्य शांतिप्रिय देश की उन्नति देखने वाले लोग, ऐसी चीजों पर अपनी आंख बंद कर लेते हैं, क्यो नही यह सवाल उठाते ऐसी पोस्ट्स की प्रमाणिकता पर? क्यों नही सोचते की एक लाइक य़ा शेयर किसी आग की चिंगारी भी बन सकता है। क्यो नही हतोत्साहित करते ऐसे ग्रुप्स को जिनका काम ही है झूठी खबरें झूठे विचारों को फैलाना।
हमारे आंख बंद करने से समस्या अपना रूप सीमित नही करने वाली।
हम सभी को सोशल मीडिया की सकारात्मक शक्ति को पहचानना होगा, और उसकी सार्थकता को सिद्ध भी करना होगा। तभी हम कह सकेंगे इनफारमेशन टेक्नालॉजी इज द पावर ऑफ इंडिया।

मंगलवार, 3 जुलाई 2018

न यूं ही कहो हम हैं सही


बुरा किसी को कहने से
बुराइयां गर होती खत्म
शायद ये दुनिया जन्नत से भी
कही ज्यादा होती हसीं

जानते हो आप भी
यकी ये हमे भी है
महज चर्चा बुराइयों का करने से
जमीं जन्नत होगी नही

कहते है हम भी
कहते हो आप भी
जमाना खराब हुआ जाता
हर जमाने की है ये कही

ठहरो जरा सोचो जरा
किससे बना ये समाज है
कही अपने अंदर भी तो नही
बैठा बुराई का पुतला कही

छोड भी दो कहना कभी
ये बुरा है वो बुरा है
कुछ समय खुद को भी दो
न यूं ही कहो हम हैं सही

काम कीचड़ उछालने का
नेताओं पर ही छोड दें
आप हम तो आओ मिलकर
उखाड़े वुराइयां जड़ से ही

शनिवार, 23 जून 2018

हिंदी प्रेम




खाना खाने के बाद, बच्चे टी वी देखने में मस्त हो गये और पत्नी जी किचन का काम समेटने लगी। अवस्थी जी मोबाइल ले कर बाहर लॉन में निकल आये। अवस्थी जी चार साल पहले ही बैंक में प्रोबेशनरी ऑफीसर के पद पर नियुक्त हुये थे। और करीब एक साल पहले आपका ट्रांसफर दिल्ली की लाजपत नगर ब्रांच में हुआ है । अवस्थी जी यूं ही फेसबुक चेक कर रहे थे तभी मिश्रा जी का कॉल आया, सामान्य शिष्टाचार के बाद बोले- सर जी, इधर काफी दिन हुये, हम लोगो ने कोई हिन्दी गोष्ठी या सम्मेलन नही कराया, मै क्या सोच रहा था कि अपने पास तो काफी फंड भी बच रहा है और मार्च तो इंड पर ही है, अगर आप कहे तो कोई कार्यक्रम करा ले?
अवस्थी जी थोडा मुस्कुराये और बोले- क्या मिश्रा जी, आपने इस बात के लिये हमे फोन किया, हमे तो लगा कुछ इंट्रेसटिंग बात आप कहेंगे। आप भी न, कहां कहां से ढूंढ लाते हो ऐसे फालतू के विचार, कुछ और सोचियेगा, और फिर थोडा अधिकारियों वाला रोब चेहरे और आवाज में लाते हुये बोले-मिश्रा जी फंड खर्च की चिंता आपका विषय नही।
बेचारे मिश्रा जी ने तो सोचा था सर खुश हो जायेंगे, मगर यहां तो बात पूरी उल्टी ही पड़ गयी। धीमी सी आवाज में अपने आपको बचाते हुये बोला- वो तो सर मुझे लगा आपको हिंदी से विशेष लगाव है तो बस इसीलिये बोल दिया। मिश्रा जी की बात को लगभग अनसुना सा करते हुये अवस्थी जी बोले-  क्या मिश्रा जी– इतने पुराने होकर भी नही समझे, अरे मेरे हिंदी प्रेम को केवल हिंदी दिवस तक ही रहने दीजिये, और ठहाका मारते हुये हंस कर फोन काट दिया।
फोन पकड़े बेचारे मिश्रा जी ने सोचने लगे, पिछले वर्ष हिंदी दिवस पर हिंदी के प्रति उनका लगाव तो देखते ही बनता था, अपने भाषण में उन्होने कहा भी तो था, “मिश्रा जी, जो कि हमारे हिंदी विभाग के संचालक है उनसे मैं व्यक्तिगत तौर पर अनुरोध करता हूं कि वो हिंदी भाषा को प्रोन्नत करने के ऐसे कार्यक्रम ना केवल हिंदी दिवस अपितु समय समय पर आयोजित करते रहा करें”।
लगभग साठ की दहलीज को पार करने वाले मिश्रा जी को सच में आभास हो रहा था कि हिंदी और उनकी स्थिति में कुछ ज्यादा अंतर नही। और फिर वो कैसे भूल गये कि अवस्थी सर इंडिया के सपूत है ना कि भारत माता के।  

बुधवार, 20 जून 2018

करती हूँ आह्वाहन मै



करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से
देखो जरा निकलकर दुनिया, फेसबुक की दीवारों से

बूढ़ी माँ लाचार पिता, हर पल राह तुम्हारी तकते हैं
धन दौलत की चमक नही, तेरे चेहरे को तरसते है
थोडा उनके साथ रहो, निकल दिखावे के बाजारों से
करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से

कीमत नही चुका पाओगे, धरती मां के आंचल का
बस बातों से हरा न होगा, बंजर सीना जंगल का
पैसा छोड कुछ पुण्य कमाओ, पेडं लगा वीरानों में
करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से

काम बहुत है करने को, जो वाकई उन्नत देश करे
राजनीति की उठा पटक में, अपनो से तू क्लेश करे
वक्त अभी है दूर हो जाओ, मक्कारों और गद्दारों से
करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से

सोचो क्या थे पूर्वज अपने, और कहाँ हम पहुंचे हैं
कुंये बाग लगाते थे वो, हम बिसलेरी पानी पीते हैं
कितनी नस्लें और जियेंगीं, तापमान कें अंगारों में
करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से

देखो जरा निकलकर दुनिया, फेसबुक की दीवारों से
करती हूँ आह्वाहन मै, बस पढे लिखे समझदारों से

मंगलवार, 19 जून 2018

प्यार मोहब्बत बदल गया




जाने कब कैसे बदले
अपने, रिश्तेदारों में
प्यार मोहब्बत बदल गया
देखो कैसे व्यवहारों में

छोटी छोटी बातों पर
जिनसे कल तक लडते थे
मार पीट झगडे करके भी
संग घूमते खाते खेलते थे
जीवन चक्र कुछ यूं घूमा
हम आ बैठे नातेदारों में
प्यार मोहब्बत बदल गया
देखो कैसे व्यवहारों में

झूठ मूठ के घर बनाकर
घर घर खेला करते थे
एक गुल्ल्क में डाल के पैसे
दिनभर खनकाया करते थे
पैसा ऐसा बीच में आया
अपने हुये बकायेदारों में
प्यार मोहब्बत बदल गया
देखो कैसे व्यवहारों में

छोटा भैया, चांद से प्यारा
सबसे अच्छा लगता था
पल भर में हर फरमाइश में
पूरी करने का जी करता था
बेटे जैसा वो भैया खोया
नये रिश्तों की दीवारों में
प्यार मोहब्बत बदल गया
देखो कैसे व्यवहारों में

छूट गया घर आंगन मेरा
दो पल में एक विदाई से
उठती नही टीस मिलने की
बरसों बरस की जुदाई से
नही चाहिये कुछ अब जो
बदले, रिश्ते हिस्सेदारों में 

प्यार मोहब्बत बदल गया
देखो कैसे व्यवहारों में
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